81
मूसा अगर जो देखे तुझ नूर का तमाशा
उसकूँ पहाड़ हूवे फिर तूर का तमाशा
ऐ रश्क-ए-बाग़-ए-जन्नत तुझ पर नज़र किए सूँ
रि़ज्वाँ को होवे दोज़ख़ फिर हूर का तमाशा
रोज़-ए-सियाह उसके होंटों से जल्वागर है
तुझ ज़ुल्फ़ में जो देखा दैजूर का तमाशा
कसरत के फूलबन में जाते नहीं हैं आरिफ़
बस है मोहद्दाँ को मंसूर का तमाशा
है जिस सूँ यादगारी वो जल्वागर है दायम
तू चीं में देख जाकर फ़ग़फ़ूर का तमाशा
वो सर बुलंद आलम अज़ बस है मुझ नज़र में
ज्यूँ आसमां अयां है मुझ दूर का तमाशा
तुझ इश्क़ में वली के अंझो उबल चले हैं
ऐ बहर-ए-हुस्न आ देख उस पूर का तमाशा
82
यो तिल तुझ मुख के काबे में मुझे अस्वद-ए-हजर दिसता
ज़नख़ दाँ में तिरे मुझ चाह-ए-ज़मज़म का असर दिसता
परीशाँ सामरी का दिल तिरी जुल्फ़-ए-तिलिस्मी में
जुमुर्रुद रंग यो तिल मुझ कूँ सहर-ए-बाख़तर दिसता
मिरा दिल चाँद हो, तेरी निगह ऐजाज़ की उँगली
कि जिसकी यक इशारत में मुझे शक्क़ुल-क़मर दिसता
नयन देवल में पुतली यो है या काबे में अस्वद है
हिरन का है यो नाफ़ा या कँवल भीतर भँवर दिसता
'वली' शीरीं ज़बानी की नहीं है चाशनी सब को
हलावत फ़हम को मेरा सुख़न शहद-ओ-शकर दिसता
83
गुज़र है तुझ तरफ़ हर बुलहवस का
हुआ धावा मिठाई पर मगस का
अपस घर में रक़ीबां को न दे बार
चमन में काम क्या है ख़ार-ओ-ख़स का
निगह सूँ तेरी डरते हैं नज़र बाज़
सदा है ख़ौफ़ द़ज्दूँ को असस का
बजुज़ रंगीं अदा दूजे सूँ मत मिल
अगर मुश्ताक़ है तू रंग-ओ-रस का
'वली' को टुक दिखा सूरत अपस की
खड़ा है मुंतजिऱ तेरे दरस का
84
मत गुस्से के शोले सूँ जलते कूँ जलाती जा
टुक मेहर के पानी सूँ तूँ आग बुझाती जा
तुझ चाल की क़ीमत सूँ दिल नईं है मिरा वाकि़फ़
ऐ मान भरी चंचल टुक भाव बताती जा
इस रात अँधारी में मत भूल पडूँ तुझ सूँ
टुक पाँव के झाँझर की इनकार सुनाती जा
मुझ दिल के कबूतर कूँ पकड़ा है तिरी लट ने
ये काम धरम का है टुक इसको छुड़ाती जा
तुझ मुख की परस्तिश में गई उम्र मिरी सारी
ऐ बुत की पुजनहारी टुक इसको पुजाती जा
तुझ इश्क़ में जल-जल कर सब तन कूँ किया काजल
ये रौशनी अफ़्ज़ा है अँखियाँ को लगाती जा
तुझ नेह में दिल जल-जल जोगी की लिया सूरत
यक बार उसे मोहन छाती सूँ लगाती जा
तुझ घर की तरफ़ सुंदर आता है 'वली' दायम
मुश्ताक़ दरस का है टुक दरस दिखाती जा
85
दिल कूँ लगती है दिलरुबा की अदा
जी में बसती है ख़ुश अदा की अदा
गरचे सब ख़ूबरू हैं ख़ूब वले
क़त्ल करती है मीरज़ा की अदा
हर्फ़ बेजा बजा है गर बोलूँ
दुश्मन-ए-होश है पिया की अदा
नक्श़-ए-दीवार क्यूँ न हो आशिक़
हैरत अफ़्ज़ा है बेवफ़ा की अदा
गुल हुए ग़र्क़ आब-ए-शबनम में
देख उस साहिब-ए-हया की अदा
अश्क-ए-रंगीं में ग़र्क़ है निसदिन
जिसने देखा है तुझ हिना की अदा
ऐ 'वली' दर्द-ए-सर की दारू है
मुझ कूँ उस संदली क़बा की अदा
86
वो सनम जब सूँ बसा दीदा-ए-हैरान में आ
आतिश-ए-इश्क़ पड़ी अक़्ल के सामान में आ
नाज़ देता नहीं गर रुख्स़त-ए-गुलगश्त-ए-चमन
ऐ चमनज़ार-ए-हया दिल के गुलिस्तान में आ
ऐश है ऐश कि उस मह का ख़याल-ए-रौशन
शम्म:- रौशन किया मुझ दिल के शबिस्तान में आ
याद आता है मुझे जब वा गुल-ए-बाग़-ए-वफ़ा
अश्क करते हैं मकाँ गोशा-ए-दामान में आ
नाला-ओ-आह की तफ़्सील न पूछो मुझ सूँ
दफ़्तर-ए-दर्द बसा इश्क़ के दीवान में आ
हुस्न था पर्दा-ए-तज्रीद में सब सूँ आज़ाद
तालिब-ए-इश्क़ हुआ सूरत-ए-इनसान में आ
शेख़ याँ बात तिरी पेश न जावे हरगिज़
अक़्ल को छोड़ के मत मजलिस-ए-रिंदान में आ
दर्द मंदां को बजुज़ दर्द नहीं सैद-ए-मुराद
ऐ शह-ए-मुल्क-ए-जुनू ग़म के बयाबान में आ
हकिम-ए-वक्त़ है तुझ घर में रक़ीब-ए-बदख़ू
देव मुख्त़ार हुआ मुल्क-ए-सुलेमान में आ
चश्मा-ए-आब-ए-बक़ा जग में किया है हासिल
यूसुफ़-ए-हुस्न तिरे जाह-ए-ज़नख़दान में आ
जग के ख़ूबां का नमक हो के नमक परवर्दा
छुप रहा आके तिरे लब के नमकदान में आ
बस कि मुझ हाल सूँ हमसर है परीशानी में
दर्द कहती है मिरा, ज़ुल्फ़ तिरे कान में आ
ग़म सूँ तेरे है तरह्हुम का महल हाल-ए-'वली'
ज़ुल्म को छोड़ सजन शेवा-ए-अहसान में आ
87
अयाँ है हर तरफ़ आलम में हुस्न-ए-बेहिजाब उसका
बग़ैर अज़ दीदा-ए-हैरां नहीं जग में निक़ाब उसका
हुआ है मुझ पे शम्मे-बज्म़ यकरंगी सूँ यूँ रौशन
कि हर ज़र्रे उपर ताबाँ है दायम आफ़ताब उसका
करे उश्शाक़ कूँ ज्यूँ सूरत-ए-दीवार हैरत सूँ
अगर पर्दे सूँ वा होवे जमाल-ए-बेहिजाब उसका
सजन ने यक नज़र देखा निगाह-ए-मस्त सूँ जिसकूँ
ख़राबात-ए-दोआलम में सदा है वो ख़राब उसका
मिरा दिल पाक है अज़ बस 'वली' रंग-ए-कदूरत सूँ
हुआ ज्यूँ जोहर-ए-आईना मख़्फ़ी पेचो-ताब उसका
88
आज की रैन मुझ कूँ ख्व़ाब न था
दोनों अँखियाँ में ग़ैर-ए-आब न था
ख़ून-ए-दिल कूँ किया था मैंने नोश
और शीशे मिनीं शराब न था
आज की रैन दर्द-ओ-ग़म म्याने
कोई मुझ सार का ख़राब न था
मजलिसे-शोख़ में मुझे कुछ भी
हुज्जत-ए-वस्ल कूँ जवाब न था
टुक तकल्लुफ़ सूँ आके मिल जाता
हक़ के नज़दीक क़छ अजा़ब न था
माह अंधकार था कि ज्यूँ मेरे
पास मेरा जो माहताब न था
आह पर आह खींचता था मैं
आज की रात कुछ हिसाब न था
क्या सबब था जो ख़ुद नहीं आया
कि उसे मुझ सिती हिजाब न था
गिला-ए-शोख़ ऐ 'वली' करना
हर किसी कन तुझे सवाब न था
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दिल को गर मरतबा हो दरपन का
मुफ़्त है देखना सिरीजन का
जामा ज़ेबाँ कूँ क्यूँ तजूँ कि मुझे
घेर रखता है दूर दामन का
ऐ ज़बाँ कर मदद कि आज सनम
मुंतजिऱ है बयान-ए-रौशन का
आईना तुझसे होके हमज़ानू
ग़ैरत अफ़्ज़ा हुआ है गुलशन का
अम्न में तुझ निगह सूँ हैं बेदार
ख़ौफ़ नईं मुफ्लि़सों को रहज़न का
दिल-ए-सदपारा तुझ पलक सूँ है बंद
खि़र्का़ दोज़ी है काम सोज़न का
तुझ निगह सूँ ब शक्ल शान-ए-असल
दिल हुआ घर हज़ार रोज़न का
टुक 'वली' की तरफ़ निगाह करो
सुबह सूँ मुंतजिऱ है दर्शन का
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शग़ल बेहतर है इश्क़बाज़ी का
क्या हक़ीक़ी क्या वो मजाज़ी का
हर ज़बाँ पर है मिस्ल-ए-ख़ाना मदाम
ज़िक्र तुझ जुल्म की दराज़ी का
होश के हाथ में अना न रही
जब सूँ देखा सवार ताज़ी का
तैं दिखा कर अपस की मुख की किताब
इल्म खोया है दिल सूँ क़ाज़ी का
आज तेरी भवाँ ने मस्जिद में
होश खोया है हर नमाज़ी का
गर नहीं राह-ए-इश्क़ सूँ आगाह
फ़ख़्र बेजा हे फ़ख़्र राज़ी का
ऐ 'वली' सर्वक़द कूँ देखूँगा
वक्त़ आया है सरफ़राज़ी का
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किया हूँ जब सूँ वादा शाह-ए-ख़ूबाँ की ग़ुलामी का
अलम बरपा हुआ है तब सूँ मेरी नेकनामी का
उसे दुश्वार है जग में निकलना ग़म के फाँदे सूँ
जो कुई देखा है तेरे बर मिनीं जामा दो दवामी का
उठा रेहाँ अगरचे ख्व़ाजा-ए-बस्ताँ सरा लेकिन
दिया तुझ ख़त कूँ ई याक़ूत लब सर ख़त ग़ुलामी का
परी रूयाँ के कूचे में ख़बरदारी से जा ऐ दिल
कि इत्राफ-ए-हरम में डर हमेशा है हरामी का
बसे फ़रहाद के मानिंद कोह-ए-बीस्तों में जा
अगर क़िस्सा सुने ख़ुसरो तिरी शीरीं कलामी का
लगे ज्यूँ नख़्ल मातम सर्व-ए-गुलशन उसकी अँखियाँ में
तमाशा जिनने देखा है सजन तुझ ख़ुशख़रामी का
हक़ीक़त सूँ तिरी मुद्दत सिती वाक़िफ़ हैं ऐ ज़ाहिद
अबस हम पुख़्ता मग़जाँ सूँ न कर इज़हार ख़ामी का
'वली' लिखता है तेरी मस्त अँखियाँ देख ऐ साक़ी
बयाज़-ए-गर्दन-ए-मीना उपर दीवान 'जामी' का
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सुनावे मुजकूँ गर कुई मेहरबानी सूँ सलाम उसका
कहाऊँ आख़िर-दम लग बा जाँ मिन्नत ग़ुलाम उसका
अगरचे हस्ब ज़ाहिर में है फ़ुर्क़त दरम्याँ लेकिन
तसव्वुर दिल में मेरे जल्वागर है सुब्ह-ओ-शाम उसका
मुहब्बत के मिरे दावे पे ता होवे सनद मुझकूँ
लिख्या हूँ सफ़्ह-ए-सीने पे ख़ून-ए-दिल सूँ नाम उसका
बरंगे लाला निकले जाम लेकर इस ज़मीं से जम
अगर बख्श़े तकल्लुम सूँ मै-ए-जाँबख्श़ जाम उसका
कुफ़र कूँ तोड़ दिल सूँ दिल में रख कर नीयत-ए-ख़ालिस
हुआ है राम बिन हसरत सूँ जा लछमन सू राम उसका
हुई दी वानगी मजनूँ की यूँ मेरे जुनूँ आगे
कि ज्यूँ है हुस्न-ए-लैला बेतकल्लुफ़-पा-ए-नाम उसका
ज़बाँ तेशे की कर समझे ज़बाँ दूजे फ़सीहाँ की
अगर फ़रहाद दिल जाकर सुने शीरीं कलाम उसका
'वली' देखा जो उस अँखियाँ के साक़ी कन दो जाम-ए-मै
हुआ है बेख़बर आलम सूँ होर ख्व़ाहान-ए-जाम उसका
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तुझ लब की सिफ़त लाल-ओ-बदख़्शाँ सों कहूँगा
जादू हैं तेरे नैन ग़ज़ालाँ सों कहूँगा
दी बादशही हक़ ने तुझे हुस्न नगर की
यो किश्वर-ए-ईराँ में सुलेमाँ सों कहूँगा
तारीफ़ तेरे क़द की अलिफ़वार सिरीजन
जा सर्व गुलिस्ताँ कूँ ख़ुशउलहां सो कहूँगा
मुझ पर न करो ज़ुल्म तुम ऐ लैला-ए ख़ूबाँ
मजनूँ हूँ तेरे ग़म कूँ बयाबाँ सों कहूँगा
देखा हूँ तुझे ख्व़ाब में ऐ माया-ए-ख़ूबी
इस ख्व़ाब को जा यूसुफ़-ए-किनआँ सों कहूँगा
जलता हूँ शब-ओ-रोज़ तिरे ग़म में ऐ साजन
ये सोज़ तिरा मिश्अल-ए-सोज़ाँ सों कहूँगा
यक नुक्त़ा तिरे सफ़हए-रुख़ पर नहीं बेजा
इस मुख कूँ तिरे सफ़हए-क़ुरआँ सों कहूँगा
बेसब्र न हो ऐ 'वली' इस दर्द सों हरगिज
जलता हूँ तिरे दर्द में दरमाँ सों कहूँगा
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तुझ मुख का यो तिल देखकर लाले का दिल काला हुआ
तुझ दौर-ए-ख़त सों तौक़ ज्यूँ महताब पर हाला हुआ
मस्ती मनीं महशर तलक कौनैन को बिसरा है वो
जो तुझ नयन के जाम सों मद पी के मतवाला हुआ
काजल नयन को देख कर बोले हैं यूँ जादूगराँ
उश्शाक़ की तस्ख़ीर कूँ यूँ सहर-ए-बंगाला हुआ
ग़म्जाँ की फ़ौजां बाँधकर आए हैं रावत नैन के
हर मू पलक का हाथ में उनके सो जूँ भाला हुआ
जलता है दोज़ख़ रात दिन तेरे जले के रश्क सों
मुश्ताक़ तेरे दरस का जन्नत सों निरवाला हुआ
सट नैन की शमशीर की ऊझड़ 'वली' के दिल उपर
तेरे शिकारिस्तान में यो नख़्वीर है पाला हुआ
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जल्वागर जब सों वो जमाल हुआ
नूर-ए-ख़ुर्शीद पायमाल हुआ
नश्शए-सब्ज़ए-ख़त-ए-ख़ूबाँ
वाली-ए-आलम-ए-ख़याल हुआ
याद कर तुझ भवाँ की बैत-ए-बुलंद
माह-ए-नो साहिब-ए-कमाल हुआ
देख कर तुझ निगाह की शोख़ी
होश-ए-आशिक़ रम-ए-ग़ज़ाल हुआ
हुस्न उस दिलरुबा का मुद्दत सों
अक्स-ए-आईना-ए-ख्य़ाल हुआ
वस्फ़ में तुझ भवाँ के हर मिसरा
सानी-ए-मिसरए-हलाल हुआ
जिनने देखा है तुझ निगाह का तेग़
फिर के जीना उसे मुहाल हुआ
अज़ल मजनूँ के बाद मुझकूँ 'वली'
सूबा-ए-आशिक़ी बहाल हुआ
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चश्म-ए-दिलबर में ख़ुश अदा पाया
आलम-ए-दिल कूँ मुब्तिला पाया
सैर सहरा की तूँ न कर हरगिज़
दिल के सेहरा में गर ख़ुदा पाया
जब न आया था शिक्म-ए-मादर में
इब्तिदा सूँ न इंतिहा पाया
इस्म-ए-अल्लाह-ओ-मीम अहमद है
हक़ सतीं हक़ कूँ हक़नुमा पाया
बादशाह-ए-नजफ़ वली अल्लाह
पीर-ए-कामिल अली रज़ा पाया
उस मा'नी कूँ बुलहवस नादाँ
क्यूँकि समझे 'वली' ने क्या पाया
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दिल में जब इश्क़ ने तासीर किया
फ़र्द-ए-बातिल ख़त-ए-तदबीर किया
बंद करने दिल-ए-वहशतज़दा कूँ
दाम ज़ह ज़ुल्फ़-ए-गिरहगीर किया
मौज-ए-रफ्त़ार ने तुझ क़द की सनम
सर्व-ए-आज़ाद कूँ ज़ंजीर किया
सब्ज़ बख्त़ों में उसे लिखते हैं
वस्फ़ तुझ ख़त के जो तहरीर दिया
जुज़ अलम उसकूँ न होवे हासिल
इश्क़-ए-बेपीर कूँ जो पीर किया
शम्अ मानिंद जली उसकी ज़बाँ
जिनने मुझ सोज़ की तक़रीर किया
गिर्य:-ओ-गर्द-ए-मलामत 'सूँ 'वली'
ख़ाना-ए-इश्क़ कूँ तामीर किया
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है क़द तिरा सरापा मा'नी-ए-नाज़ गोया
पोशीदा दिल में मेरे आता है राज़ गोया
मा'नी तरफ़ चल्या है सूरत सूँ यूँ मिरा दिल
सूरत सिती चल्या है काबे जहाज़ गोया
हर इक निगह में तेरी है नग़मा-ए-मुहब्बत
हर तार तुझ निगह का है तार-ए-साज़ गोया
ऐ कि़ब्ला रू हमेशा मेहराब में भवाँ की
करती हैं तेरी पलकाँ मिलकर नमाज़ गोया
तेरी कमर मुसव्विर चितरा है इस अदा सूँ
करता है सर्फ़ उसमें नाज़-ओ-नियाज़ गोया
तुझ जुल्फ़ कूँ जो बोल्या हमदोश मिसरा-ए-क़द
रखता है तुझ बराबर फ़िक्र-ए-दराज़ गोया
वो क़ातिल-ए-सितमगर आता है यूँ 'वली' पर
जल्दी सूँ सैद ऊपर आता है बाज़ गोया
99
मुद्दत के बाद आज किया जूँ अदा सूँ बात
खिलने सूँ उस लबाँ के हुआ हल्ल-ए-मुश्किलात
देखे सूँ आज मुझ पे शबाँ रोज नेक है
वो ज़ुल्फ़-ओ-मुख कि जिस सूँ इबारत है दिन-ओ रात
मीठी तिरी यो बात अहे नित नबात रेज़
गोया रखे हैं लब में तिरे माया-ए-नबात
ज़ुल्मात सूँ निकल के जहाँ में अयाँ अछे
गर हुक्म लेवे लब सूँ तिरे चश्मा-ए-हयात
तुझ नाज़ होर अदा सूँ मिरी ये है अर्ज़ ग़र्ज़
या ऐन-ए-इल्तिफ़ात हो या हुक्म-ए-इल्तिफ़ात
तब सूँ उठा है दिल सूँ मिरे ग़ैर का ख़याल
तेरा ख़याल जब सूँ हुआ है मिरे संगात
उस वक्त़ मुझको ऐश-ए-दो आलम मिले 'वली'
जिस वक्त़ बेहिजाब करूँ प्यू संगात बात
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तेरे मुख पर नाज़नीं यो निक़ाब
झलकता है ज्यूँ मत्लए-आफ़ताब
अदा फ़हम के दिल की तस्वीर कूँ
तिरा क़द है ज्यूँ मिसरए-ए-इंतिख़ाब
बजा है तिरे हुस्न की ताब सूँ
तिरी ज़ुल्फ़ खाती है गर पेच-ओ-ताब
नज़र कर के तुझ मुख की साफ़ी उपर
हुई शर्म सूँ आरसी ग़र्क-ए-आब
तिरे अक्स पड़ने सूँ ऐ गुलबदन
अजब नईं अगर आब होवे गुलाब
तिरे वस्ल में इस क़दर है निशात
कि महमिल कूँ आये हैं राहत सूँ ख्व़ाब
करें बख्त़ मेरे अगर टुक मदद
'वली' उस सजन सूँ मिलूँ बेहिसाब
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